Thursday, June 26, 2008

बात आती हे जुबा पर मगर कहा नही जाता

बात आती हे जुबा पर मगर कहा नही जाता,
दिल--बेताब का ये हाल भी अब सहा नही जाता
उन्हे
आखो मे बसाया हे, सब गम से बचा कर.
रन्जिश--गम मे अश्क़ अपने मे बहा नही पाता

नज़र ना लग जाये जमाने कि, छुपाया पलको मे,
अब चाहकर भी तेरे दिदार का लुफ़्त मै उढा नही पाता
रात
भर करे दिदार तेरा आसमान मे ये आखे
निन्द तेरे ख्वाबो के लिये भी मे बचा नही पाता

घेर लिया हे मुझको तन्हाईयो के अन्धेरो ने ऐसे,
पन्ने हे तेरी यादो के मगर मे जला नही पाता
कोशिश
करता तो शायद तुझे भुला देता मगर,
आईनो मे तेरे अक्श को मे छुपा नही पाता

यु तो केई दर्दो कि दवा बन जाती हे ये जुबान,
अफ़्सोस इसे अपने घावो का मरहम मे बना नही पाता
बात
इतनी सी होती तो शायद कह देता मे रोकर भी,
आग बरसो कि लगी सिने मे जिसे मे बुझा नही पाता

कही बदनाम ना हो जाये मौहबत मेरी इस डर से
अपनी लिखी हुइ नजमो को भी मे गुनगुना नही पाता
जिस्म
मे बसाया था खुदाया मे ने तुझे दिलबर
घुट घुट के तु ना मर जाये,खुद को दफ़्ना नही पाता

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