Saturday, April 19, 2008

VO KAAGAZ KI KASHTI

ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो भले चीन लो मुजसे मेरी जवानी
मगर मुजको लौटा दो बचपन का सावन
वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी ...
मोहल्ले की सबसी निशानी पुरानी
वो बुधिया जिसे बच्चे कहते थे नानी
वो नानी की बातों मे परियों का डेरा
वो चेहरे की झुरियौ मे सदियों का फेरा
भुलाए नही भूल सकता है कोए
वो छोटी सी रातें वो लंबी कहानी ....
कड़ी धूप मे अपने घर से निकलना
वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना
वो गुड़िया की शादी मे लड़ना,झगड़ना
वो झूलों से गिरना,वो गिर के सम्हालना
वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफे
वो टूटी हुई चूड़ियों की निशानी...
कभी रेत के उँचे टीलों पे जाना
घरौंदे बनाना, बना के मिटाना
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो लाखों खिलौनों की जागीर अपनी
ना दुनिया का गुम था ना रिश्तों के बंधन
बड़ी ख़ूसूरत थी वो जिंदगानी...
वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश कॅया पानी...

ये ग़ज़ल मेरे पापा मुझे सुनाया करते थे... आज जब वो मेरे साथ नही है" पर वो नही है ऐसा भी नही है" उनकी बातें बहुत याद आती हैं और वे भी...और मुझे अब लगता है ये शायद ग़ज़ल नही बल्कि पूरी जिंदगी है...
हर इंसान अक बार अपने बकपन मे लौटने का तलबगार रहता है...
और ये ग़ज़ल उन सबके लिए है जो पता नही किस मारीचिका के पीछे भाग रहे हैं...

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